कवितायेँ

क्षत्रिय धर्म

क्षत्रिय धर्म को भूल,राजपूत हम बन गये !
छोङे सारे क्षत्रिय सँस्कार, अँहकार मे तन गये !

क्षत्रिय धर्म मे पले हुए हम शिर कटने पर भी लङते थे !
दिख जाता अगर पापी ओर अन्याय कहिँ शेरो कि भाँती टूट पङते थे !

शेरो सी शान,हिमालय सी ईज्जत,और गौरवशाली इतिहास का पूरखो ने हमे अभयदान दिया !
जनता के सेवक थे हम लोगो ने भी हमे सम्मान दिया !

छूट गई शान, टुट गयी इज्जत पी दारु छोङे सँस्कार !
ईतिहास का हमने अपमान किया भूल गई क्या दूनिया सम्मान की खातिर लाखो
क्षत्राणियो ने अग्नी श्नान किया !!

तो फिर दासी को जोधा बता राजपूत का क्यो अपमान किया !
दया हम दिखाते है जब ही तो चौहान ने गोरी को 18 बार छोङ दिया !!

पर रजपूती रँग मे रँग जाये राजपूत तो देखो बिन आँखो के चौहान ने गोरी का
शिर फोङ दिया !

अकेले महाराणा ने दिल्ली कि सल्तनत को हिला दिया !
वीर दुर्गादास ने मुगल के सपनो को मिट्टी मे मिला दिया !!

अरे हम एक नही रहै तो दुनिया ने हमे भूला दिया !
भूल गई क्या दुनिया-
हम उनके वँशज है जिन्होने रावण,कँस जैसो को मिट्टी मे मिला दिया
– जितेन्द्र सिंह राठोड
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मेरा गाँव, मेरा देश

गाँव वीरान हैं, कसबे बेजुबान हैं
शहरों में रहने चला गया वो जो घर का जवान हैं

आता हैं घर ऐसे जैसे मेहमान हैं
बूढी आँखों को फिर भी इतने में इत्मिनान हैं !

कहने को नगर हैं, कहने को महानगर हैं
ऊँची इमारतों के नीचे पर एक लम्बी गटर हैं !

आदमी हैं कुत्ता जहाँ और औरत बिल्ली हैं
मुंबई हैं मुसीबत यारो और डरावना दिल्ली हैं !

हैं कुछ नौजवान दोस्त मेरे जो पढ़ न सके
कुछ तो अच्छा किया जो माँ-बाप संग रह सके !

आया जब भी गाँव में मैं अपनों की खोज में
था अकेला में जवान वहाँ बुढ्ढो की फ़ौज में !

कभी कटती थी फसल जिन खेतो और खलिहानों में
आज कालोनिया कट रही थी वहाँ मिटटी के मैदानों में !

कुछ रहे ना रहे मेरा गुरुर जरूर मिट जायेगा
गाँवो का गुलशन एक दिन शमशान में बदल जायेगा !

वो गाँव की गौरी बस तरानों में रहेंगी
वो पनघट वो बोली बस बातों में रहेंगी !

मैं सोचता हु उस समय भी ये आबादी क्या इसी मजे में रहेंगी
भूँख से बिलखती सोसायटी क्या मोबाइल से पेट भरेगी !

शाम होने को हैं यारो, रात भी होकर रहेंगी
सुबह का सूरज क्या सूरत लेकर आये, ये बात डराती रहेंगी
– ब्रिजपाल सिंह रावत

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देशभक्त बेटी:-

पापा तुम लड़ना सीमा पर,
बाकी चिन्ता मत करना…
देश बड़ा है जान है छोटी,
जान की चिन्ता मत करना…
नजरें तुम सीमा पर रखना,
दुश्मन छिपा शिखर पर है…
तुम विचलित बिलकुल मत होना,
देश तुम्हीं पर निर्भर है…
मम्मी कहतीं- लिख पापा को,
माँ की चिन्ता मत करना…
चाचा की आयी थी चिट्ठी,
चाची पहुँच गयीं झाँसी…
घर में दीदी, माँ दादी है,
दादा जी को है खाँसी…
दादा कहते-लिख पापा को,
‘बाप’ की चिन्ता मत करना…
अबकी बारिश को छत पर का,
पानी टपका ‘चूल्हे’ में…
सीढ़ी से दादी फिसली थीं,
चोट लगी है कूल्हे में…
दादी कहतीं-लिख पापा को,
‘माँ’ की चिन्ता मत करना…
करनी है दीदी की शादी,
दादा रिश्ता खोज रहे…
अबकी जाड़े में रौनक हो,
हम सब ऐसा सोच रहे…
दीदी कहतीं-लिख पापा को,
‘बहन’ की चिन्ता मत करना…
घर को जब आओगे पापा,
मुझको, हाथ घड़ी लाना…
दादी का चश्मा ला देना,
दादा हाथ छड़ी लाना…
मैं लिखती हूँ तुमको पापा,
‘यहाँ’ की चिन्ता मत करना।
╰☆╮||वंदे मातरम || || जय हिंद ||╰☆╮

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कोशिश करने वालों की हार नहीं होती:-

लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

नन्हीं चीटीं जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर सौ बार फ़िसलती है,
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना ना अखरता है,
आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिन्धु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौट आता है,
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में,
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों कि कभी हार नहीं होती।

असफ़लता एक चुनौती है,इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गयी, देखो और सुधार करो,
जब तक ना सफ़ल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़कर मत भागो तुम,
कुछ किए बिना ही जय-जयकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

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सबको प्यार देने की आदत है हमें,
अपनी अलग पहचान बनाने की आदत है हमे,
कितना भी गहरा जख्म दे कोई,
उतना ही ज्यादा मुस्कराने की आदत है हमें…
इस अजनबी दुनिया में अकेला ख्वाब हूँ मैं,
सवालो से खफा छोटा सा जवाब हूँ मैं,
जो समझ न सके मुझे, उनके लिए “कौन”
जो समझ गए उनके लिए खुली किताब हूँ मैं,
आँख से देखोगे तो खुश पाओगे,
दिल से पूछोगे तो दर्द का सैलाब हूँ मैं…

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हम तो भैया ‘कामकार’ हैं।
लोग समझते पत्रकार हैं।।

ग्रामीण पत्रकारों का भोर, अख़बार संग में होता है।
खबर न छूटे कोई धोखे से, भयवश मन से सोता है।।
कोई न जाने क्या मिलता, पैसा मिलता या बेरोजगार हैं।
हम तो भैया ‘कामकार’ हैं। लोग समझते पत्रकार हैं।।

पास में आईकार्ड नहीं, खर्च नहीं कोई मिलता है।
जब भी इसकी मांग करो, अधिकारी सुन के बिगड़ता है।।
कोई साथ निभाता ना, पत्रकार कुछ चाटुकार हैं।।
हम तो भैया ‘कामकार’ हैं। लोग समझते पत्रकार हैं।।

दिखना मिलना और लिखना, खबर भेजना काम है।
सारा कुछ मैनेज करने में, लगता अपना दाम है।।
छोटों के लिए पत्थर दिलवाले, सम्पादक बड़कवा पत्रकार हैं।
हम तो भैया ‘कामकार’ हैं। लोग समझते पत्रकार हैं।।

खबर भेजनी की गारण्टी, छपवाना वश की बात नहीं।
वरिष्ठ लोग करते मनमानी, होते उनमे जज्बात नहीं।।
पत्रकारिता के कार्यक्रम, छपते नहीं कूड़ा कबार हैं।
हम तो भैया ‘कामकार’ हैं। लोग समझते पत्रकार हैं।।

‘परदेशी’ पत्रकारिता बिन, मन को आता चैन नहीं।
दिन कट जाये मुंह लटकाकर, रात को आये नींद नहीं।।
ग्रामीण पत्रकारों का शोषण, ना जाने कितने शिकार हैं ।।
हम तो भैया ‘कामकार’ हैं। लोग समझते पत्रकार हैं।।
-सुधीर अवस्थी ‘परदेशी’

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