संस्कृति

राजस्थानी संस्कृति और परम्परा ने देश को शिखर तक पहुचाया है. राजा महाराजो के समय से ही वेशभूषा, रहन-सहन, भाषा, श्रंगार और मर्यादाओ ने तो मानो भारत का निर्माण करने में अहम् भूमिका निभाई हो। राजस्थान की कठिन जलवायु ने यहां के लोगों को साहसी और मज़बूत बनाया और उनके साहस से निकली राजस्थान की रंगीन लोकगाथाएं। राजा-महाराजाओं की इस भूमि में शूरवीरता और लोक संस्कृति पूरी तरह से घुलमिल गयी।
राजस्थान में लोक संगीत, नृत्य, वाद्य यंत्र, तीज-त्योहार तथा अन्य कलाओं ने राजशाही महलों में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। यहां की लोक कला और संस्कृति प्राचीन तथा वैभवशाली है। यहां गीत, शास्त्रीय गायन से लेकर पनिहारिनों के लोक गीतों की शक्ल में घुले-मिले होते हैं। कला का एक सुंदर और विविध रूप जीवन की एक आवश्यक दिशा के रूप में रचा-बसा है। राजस्थान की गौरवशाली संस्कृति और अविस्मरणीय प्राकृतिक सौंदर्य इसे अपने आप में परिपूर्ण बना देता है।
राजस्थान का लोक संगीत मौखिक परंपरा पर आधारित मानस पटल की उपज है। राजस्थान में गीत-संगीत अधिकांश महिलाएं गाती हैं। राजस्थान में जल का महत्व है, इसलिए अधिकतर गीत जल से ही संबंधित हैं। इनमें रोजमर्रा के कामकाज तथा कुंए से पानी भरने आदि का वर्णन होता है। कुछ राजस्थानी प्रेम-गीत होते हैं, तो कुछ में सासू-मां और ननद के संबंधों को दर्शाया जाता है।
यहां के संगीत में भी धर्म की सुगंध है। अनेक रीति-रिवाज संगीत के बिना बिल्कुल अधूरे हैं। कवियों के पद तथा श्लोक भी संगीत में शामिल होते हैं। इन गीतों को अक्सर रात में गाया जाता है। राजस्थान के लोक संगीतकार भी शास्त्रीय संगीत नियमों के अनुसार चलते हैं और संगीत सभा की शुरुआत आलापी से होती है, जिसमें राग का पूरा परिचय होता है। तालपक्ष के मज़बूत आधार के रूप में तान, द्रुत ख्याल तथा तिहाइयां आदि का पूरा ख्याल रखा जाता है।
वीरता के गीतों की परंपरा भी राजस्थान में है। यहां कलाकार लोक नायकों, जैसे तेजाजी, गोगाजी और रामदेवजी के गीत गाते हैं और प्रेमी युवकों की कथाएं गीतों की मनोरंजक शैली में सुनायी जाती हैं।

वाद्य यंत्र :-

लोक कला वाद्य यंत्रों के बिना अधूरी है। राजस्थान की लोक कला में वाद्यों का बहुत महत्व है। इनके बिना नृत्य, संगीत अधूरे होते हैं। नृत्य-संगीत के अनुसार यहां के वाद्य भी अलग-अलग प्रकार के होते हैं, जैसे कि हैंताल, स्वर और फूंक घंटी, थाली तथा मिट्टी के घड़े, रावण हत्था, तंदूरा, नगाड़े, तीनतारा, जोगिया, सारंगी, पूंगी, शंपग आदि।
कामायाचा एक बड़ा गोल गुंजायमान यंत्र है, जो ध्वनि पैदा करता है। इसका जैसलमेर तथा बाड़मेर क्षेत्र में मंगानियार्स की ओर से प्रयोग किया जाता है।
रावण हत्था राजस्थान का सबसे पुराना वाद्य यंत्र है, जो धनुष के साथ खेला जाता है। इसके दो मुख्य तार, कई सहायक तार, एक आधा नारियल खोल और बांस की एक लकड़ी होती है। धनुष के साथ घुंघरू (घंटी) जुड़ी होती हैं।
मोरचंग एक छोटा-सा संगीत यंत्र है, जो दांत या होंठ में फंसाकर उंगलियों के सहारे बजाया जाता है।
शहनाई पतला-सा यंत्र है, जो विशेष रूप से शादियों के समय प्रयोग किया जाता है।
सारंगी सबसे महत्वपूर्ण लोक वाद्य यंत्र है और राजस्थान में विभिन्न रूपों में पाया जाता है।
एकतारा बांस के बने शरीर से जुड़ी लौकी के पेट की तरह होता है। इसे भक्ति संगीत के लिए प्रयोग किया जाता है।
घंटी या घंटा सामान्यत: उपयोग किया जाता है और घुंघरू संगीत का अभिन्न हिस्सा है। भेरूंजी की भोपास कमर के चारों ओर बड़ी घुंघरू पहनते हैं, अपने शरीर से लय प्रदान करने के लिए।

लोक नृत्य :-

प्रत्येक राज्य की तरह राजस्थान का भी अपना लोक नृत्य है, जो मनोरंजन का एक साधन भी है। यहां के लोक नृत्य प्राकृतिक दृश्यों के फीकेपन को पूरा करते हैं।
गैर नृत्य : होली के अवसर पर ढोल, बांकिया तथा थाली के सहारे, पुरुष अंगरखी धोती, पगड़ी पहने हाथ में छड़ियां लेकर गोल घेरे में गैर नृत्य किया जाता है।
गीदड़ नृत्य : शेखावाटी क्षेत्र के लोग होली के अवसर पर पूरे सप्ताह नगाड़े की ताल पर दो छोटे डंडे लेकर गीतों के साथ सुंदर परिधान पहनकर नृत्य करते हैं।
ढोल नृत्य : मरुस्थलीय प्रदेश जालौर मेंे शादी के दौरान पांच पुरुष बड़े ड्रम अपनी गर्दन में डाले साथ में एक नर्तकी मुंह में तलवार धारण किये तीन चित्र बने लाठी के सहारे ढोल नृत्य करते हैं।
बम नृत्य : अलवर और भरतपुर में इस नृत्य के दौरान फागुन की मस्ती में बड़े नगाड़ों को दो बड़े डंडों से बजाया जाता हैं, जिसे बम कहते हैं।
घूमर नृत्य : राजस्थान का सबसे प्रसिद्ध लोक नृत्य है। इसे मांगलिक पर्वों पर महिलाएं हाथों के लचकदार संचालन से ढोल, नगाड़ा तथा शहनाई आदि के साथ करती हैं।
गरबा नृत्य : राजस्थान के डूंगरपुर और बांसवाड़ा में गरबा नृत्य का प्रचलन है। यह नृत्य शक्ति की आराधना के दिव्य रूप को दर्शाता है।
आग नृत्य : यहां की जीवन शैली के अनुरूप है। एक बड़ी ज़मीन को लकड़ी और लकड़ी के कोयलों से तैयार किया जाता है, जहां पुरुष और लड़के ड्रम की ध्वनि की संगत से अंगारों में कूद कर आग नृत्य करते हैं।
कच्ची घोड़ी : एक डमी घोड़ों पर प्रदर्शन किया जानेवाला नृत्य है। पुरुष अच्छी तरह सजाये हुए डमी घोड़े पर सवार होकर नृत्य करते हैं।

चित्रकारी :-

राजस्थान की चित्रकारी बहुत ही जीवंत और अर्थपूर्ण है। चित्रकला की परंपरा यहां सभ्यता की शुरुआत से ही है। मिट्टी के रंगों का दीवारों पर निशान ज्यामितीय, प्राकृतिक डिजाइन के बर्तन और मिट्टी के बर्तन राजस्थान में प्रसिद्ध हैं। घरों और वस्तुओं को सजाने की परंपरा अभी भी है। राजस्थान के ऐतिहासिक पत्थर से लेकर राजमहलों और झोपड़ियों की दीवारों पर भी लघु चित्रकारी होती है।
पथवारी : गांवों में पूजा जानेवाला स्थान, जिस पर विभिन्न प्रकार के और विभिन्न रंगों के चित्र बने होते हैं।
पाना : राजस्थान में काग़ज़ पर जो चित्र बनाये जाते हैं, उन्हें पाना कहते हैं।
मांडणा : राजस्थान में लोक चित्रकला की यह एक अनूठी परंपरा है। त्योहारों और मांगलिक अवसरों पर पूजा-स्थान पर आड़ी-तिरछी रेखाओं के रूप में मांडणा बनाये जाते हैं।
फड़ : कपड़ों पर की जानेवाली चित्रकारी को फड़ कहते हैं।
सांझी : गोबर से घर के आंगन, पूजा-स्थान और चबूतरे पर बनाया जाता है।

त्योहार :-

राजस्थान में त्योहार प्रदेश की परंपराओें और संस्कृति से गहरे जुड़े हैं। यहां हर त्योहार को बहुत धूमधाम और हर्षोल्लास से मनाया जाता है। लोक संगीत तथा लोक नृत्य राजस्थान के त्योहारों में विशेष स्थान रखते हैं।
बृज महोत्सव : राजस्थान के भरतपुर ज़िले में भगवान श्रीकृष्ण के सम्मान में मार्च के महीने में होली के त्योहार से पहले आयोजित किया जाता है। `बृज महोत्सव’ के मुख्य आकर्षण राजस्थान के रासलीला नृत्य हैं, जो राधा-कृष्ण के प्रेम पर आधारित होते हैं।
ऊंट महोत्सव : पर्यटन, कला तथा संस्कृति विभाग राजस्थान के बीकानेर में हर साल ऊंट महोत्सव का आयोजन जनवरी माह में करता है। ऊंट महोत्सव मूल रूप से रेगिस्तान के जहाज को समर्पित है। इस अवसर पर तरह-तरह से सजाये ऊंटों का एक रंगीन जुलूस निकलता है। समारोह में सर्वश्रेष्ठ नस्ल प्रतियोगिता, ऊंट नृत्य, ऊंट-युद्ध प्रतियोगिता, कलाबाजी आदि का आयोजन होता है।
गणगौर महोत्सव : राजस्थान राज्य में जुलाई से अगस्त के माह में मनाया जाता है। यह महोत्सव मां गौरी तथा भगवान शिव को समर्पित है। राज्य भर में उत्साह और समर्पण के साथ अविवाहित महिलाएं अच्छे पति तथा सुखी विवाहित जीवन के लिए पूजा करती हैं।
कजली तीज महोत्सव : राजस्थान के बूंदी शहर में जुलाई से अगस्त में भादव माह के तीसरे दिन शुरू होता है। दो दिन चलनेवाले इस त्योहार में विवाहित महिलाएं पूरी भक्ति और समर्पण के साथ पूजा करती हैं।
मारवाड़ महोत्सव : सितंबर-अक्टूबर में शरद पूर्णिमा पर दो दिन के लिए जोधपुर के शहर में आयोजित किया जाता है। राजस्थान के लोक नायकों को समर्पित यह मांड महोत्सव के रूप में भी जाना जाता है। राजस्थानी लोक संगीत का इस उत्सव में विशेष स्थान है।
मेवाड़ महोत्सव : मार्च (चैत्र) और अप्रैल में मनाया जाता है। यह महोत्सव गणगौर त्योहार के अतिव्यापन वसंत के मौसम के शुरू होने पर आयोजित किया जाता है। रंगीन पोशाक में तैयार छवियों का बारात की तरह पूरे उदयपुर में जुलूस निकाला जाता है।
माउंट आबू गर्मियों का महोत्सव : हर साल जून के महीने में माउंट आबू के स्टेशन पर होता है। यहां का वातावरण, सुंदर शहर, चट्टानी इलाका, शांत झील और सुखद जलवायु ग्रीष्मकालीन समारोह के लिए आदर्श स्थल हैं। इस महोत्सव में परंपरा, संस्कृति और आदिवासी जीवन को दर्शाया जाता है।
रेगिस्तानी महोत्सव : राजस्थान के जैसलमेर ज़िले में जनवरी-फरवरी के माह में `रेगिस्तान महोत्सव’ का आयोजन होता है। इस महोत्सव के आयोजन के पीछे मुख्य उद्देश्य राज्य की समृद्ध और रंगीन संस्कृति को प्रदर्शित करना होता है। राजस्थान के मुख्य आकर्षण आग नर्तकियां, सपेरे, कठपुतली कलाकार, कलाबाज, लोक कलाकार आदि विशेष रूप से इसमें शामिल होते हैं और इन सब के साथ रेगिस्तान का जहाज ऊंट अपनी खास जगह बनाता है।

कुर्ती -कांचली (राजस्थानी संस्कृति में परिधान)

 राजस्थान के घाघरा /लहंगा ओढ़नी के बारे में कौन नहीं जानता . प्रदेश ही नहीं बल्कि देश भर में वधू के लिए चुने  जाने वाले परिधान में लहंगा ओढ़नी ही सर्वाधिक लोकप्रिय है . अन्य प्रदेशों के मुकाबले में  राजस्थान में महिलाओं के लिए मुख्य परिधान घाघरा ओढ़नी ही रहा है . दैनिक जीवन  ,मांगलिक अवसर  या प्रमुख त्योहारों पर  ग्रामीणों और शहरी से लेकर शाही परिवारों में यह परिधान समान रूप से लोकप्रिय है . बस प्रदेश की  विभिन्न जातियों , धर्म कार्य और  इलाकों के अनुसार इसके  रंग-रूप में कुछ बदलाव हो जाता है .
 राजस्थानी राजपूत महिलाओं का ऐसा ही एक प्रमुख परिधान है …कुर्ती -कांचली . सिर्फ राजस्थानी विवाहित महिलाओं द्वारा ही पहने जाने वाला यह परिधान  राजपूत बहुल इलाकों में  लगभग सभी जातियों में लोकप्रिय है .
इस परिधान के चार हिस्से होते हैं – लहंगा , कांचली , कुर्ती और ओढ़नी  . कुर्ती के भीतर पहने जाने वाली कांचली अंगिया के समान  मगर पूरी बाँहों (full sleeve) का  पीछे से खुला हुआ वस्त्र होता है जो डोरियों से बंधा होता है.  कुर्ती आम कुर्तियों जैसी मगर स्लीवलेस होती है , और इसके साथ ही होती है सिर ढकने के लिए  गोटे की किनारियों से सजी  ओढ़नी .
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लोक नृत्य और गायन  की अनूठी छटा के लिए जाने जाने वाली  राजस्थान की घुमंतू  कालबेलिया जनजाति की महिलायों का विशेष परिधान भी कुर्ती कांचली ही है , मगर उनके कार्य व्यवहार के अनुसार इसका रूप  राजपूती कुर्ती कांचली से भिन्न है . इनका लहंगा काले रंग का खूब घेरदार होता है , जिसे कसीदाकारी और विभिन्न प्रकार के कांच से सजाया जाता है .  कांचली , कुर्ती तथा ओढ़नी पर भी इसी प्रकार की कसीदाकारी और सजावट होती है . इनकी कांचली में बाहें आम राजपूती कुर्ती कांचली की तुलना में बड़ी होती है . अपनी अलग कसीदाकारी के साथ ही इसके साथ पहने जाने वाली आभूषण भी इसे सामान्य कुर्ती कांचली से अलग बनाते हैं . अपने घेरदार लहंगे के साथ बला की लय और गति से जब इस जनजाति की स्त्रियाँ संपेरा नृत्य करती हैं तो देखते बनता है. इसी कालबेलिया जनजाति की मशहूर लोक कलाकार गुलाबो अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हैं|
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चित्रकारी

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